प्रिय भैया ....
तारीख बदल गयी ...
इसलिए यहाँ
तारीख का सिक्का
नहीं जड़ा है
प्रभात फेरी मानना
जो लौटकर
रोज़ आएगा
किरणों से बुना
एक ख़त ...
याद रखो
उस प्रभु ने
तुम्हारे हाथ पर
खुरच दी हैं कुछ लकीरें ..
मात्र इसलिए कि
तुम संघर्षण दे सको
रपटीले समय को
जिसकी फिसलन पर
तुम्हारी चुनौतियों के
पैर जमे हैं
ताकि तुम मुट्ठी में
प्रभात के दाने ले
बो सको
विश्वास के अंकुर...
कोई चिड़िया
मन के आसमान की
अपने तिनकों को जोड़
दे सके नीड़
प्रभात के बरगद को.
दिन
अपने गूलर बांट
चुक जाएगा...
और तुम इस मिठास में
तलाशना
फिर बीज आशा के
नया प्रभात बोकर...
उस समय
मैं भी वहीँ मिलूंगी
थोड़ा-थोड़ा पानी
मिलकर डालेंगे
कोंपलें फूटेंगी
और मिलेगी
बरगद भर सुबह .
अमित स्नेह के साथ दीदी