Friday, December 10, 2010

"प्याली भर नेह" - द्वारा: अपर्णा दीदी


एक किरण अजनबी..
पूछा नाम?

बोली- मुस्कान..

तरल

सरल

जीवन
राग .
पूछा पता..?

बोली-
सुदेश से

सूरज के ..

तेरे द्वार
रुकने आई हूँ..
"आतिथ्य ?"
नहीं....
कुछ खोया सौंपना है ...
कब?

पिछली सुबह

अंधेरों की भीड़ में ..

"क्या ?"
वही ...

श्वेत ?

अश्वेत ?

जाति ?

देश?

धर्म?

ईश्वर?

अमरत्व?

जो
नील

मिसिसिप्पी

इर्त्य्श

अमेज़न

वोल्गा

ब्रह्मपुत्र

के साथ
बहता रहा था?

कुछ और ...
आदिम

नीला

गहरा

मछलियों के साथ...

तुम्हारी नौकाएँ

भरती रहीं

लहरें

रेत

मछलियों
का सुनहरापन

टापू

मैदान

कछार

मेरे
सभ्य दोस्त ..

तुम्हारे
कमंडल में

वही डालने
लौटी हूँ ....
इस बार
सुबह को

रुकने देना

अपनी नदी पर ...

"प्याली भर नेह
मेरी व्याकुलता
रख लो "....

अपर्णा

Friday, November 19, 2010

अपने प्यारे भाई शेखर के नाम एक ख़त

by Aparna Manoj on Saturday, October 23, 2010 at 4:56am

प्रिय भैया ....

तारीख बदल गयी ...

इसलिए यहाँ

तारीख का सिक्का

नहीं जड़ा है

प्रभात फेरी मानना

जो लौटकर

रोज़ आएगा

किरणों से बुना

एक ख़त ...

याद रखो

उस प्रभु ने

तुम्हारे हाथ पर

खुरच दी हैं कुछ लकीरें ..

मात्र इसलिए कि

तुम संघर्षण दे सको

रपटीले समय को

जिसकी फिसलन पर

तुम्हारी चुनौतियों के

पैर जमे हैं

ताकि तुम मुट्ठी में

प्रभात के दाने ले

बो सको

विश्वास के अंकुर...

कोई चिड़िया

मन के आसमान की

अपने तिनकों को जोड़

दे सके नीड़

प्रभात के बरगद को.

दिन

अपने गूलर बांट

चुक जाएगा...

और तुम इस मिठास में

तलाशना

फिर बीज आशा के

नया प्रभात बोकर...

उस समय

मैं भी वहीँ मिलूंगी

थोड़ा-थोड़ा पानी

मिलकर डालेंगे

कोंपलें फूटेंगी

और मिलेगी

बरगद भर सुबह .

अमित स्नेह के साथ दीदी